गांव के एक छोटे से कोने में, मिट्टी से बनी एक झोपड़ी में सुनीता अपने दो बच्चों के साथ रहती थी — आरव और अन्वी। पति का साया बहुत पहले उठ चुका था। उसके बाद सुनीता ही माँ भी बनी और पिता भी।
सुनीता दिन-रात खेतों में मजदूरी करती, दूसरों के घर बर्तन मांजती और जो कुछ मिलता, उससे अपने बच्चों का पेट पालती। कभी-कभी खुद भूखी रह जाती, लेकिन बच्चों की थाली में खाना कम नहीं पड़ने देती। हर रात जब बच्चे सोते, वह चुपचाप उनके बालों में हाथ फेरती और खुद से कहती — “बस इन्हें पढ़ा-लिखा दूं, तो मेरा जीवन सफल हो जाएगा।”
एक दिन गाँव के स्कूल में शिक्षक ने बताया कि शहर में एक प्रतियोगी परीक्षा है, जिसमें चयन होने पर छात्रवृत्ति मिलेगी। आरव की आँखों में उम्मीद जग गई। उसने माँ से कहा —
“माँ, मुझे वो परीक्षा देनी है, लेकिन शहर जाने के लिए पैसे चाहिए।”
सुनीता ने कुछ नहीं कहा। अगले दिन वह अपने गहनों की छोटी सी पोटली लेकर सुनार के पास गई। उसके पास जो बचा था, वह सब बेच दिया। वही गहने जो उसके मायके की आखिरी निशानी थे। वो लौटते हुए बस मुस्कुरा रही थी।
परीक्षा का दिन आया, आरव गया। चुना गया। उसे शहर में एक अच्छे स्कूल में दाखिला मिला। अन्वी भी धीरे-धीरे पढ़ाई में आगे बढ़ी। लेकिन सुनीता की तबीयत अब अक्सर खराब रहने लगी। उसने कभी बच्चों को नहीं बताया कि उसे दवा की ज़रूरत है, इलाज करवाना है। वह हर दर्द को मुस्कुराहट से ढक लेती।
सालों बाद, आरव एक सफल इंजीनियर बना। अन्वी डॉक्टर। जब वो गाँव लौटे तो देखा माँ अब पहले जैसी नहीं रही। कमज़ोर, थकी हुई, लेकिन आंखों में वही चमक।
आरव ने कहा,
“माँ, तूने तो हमें सब कुछ दिया… लेकिन तूने अपने लिए कुछ नहीं सोचा?“
सुनीता ने बस इतना कहा —
“माँ होने का मतलब ही यही है बेटा… खुद को मिटा देना, ताकि बच्चे उजाले में जी सकें।”
उस दिन आरव और अन्वी को समझ आया कि जो देवी मंदिर में बैठी है, वह तो पत्थर की मूर्ति है। असली देवी तो उनके सामने बैठी थी — एक माँ, जो चुपचाप सब सहकर भी सिर्फ अपने बच्चों की मुस्कान चाहती थी।