एक पिता की दर्दभरी कहानी
गाँव के एक छोटे से घर में एक किसान पिता, रघुवीर, अपनी बेटी सोनल के साथ रहता था। रघुवीर की पत्नी का देहांत कई साल पहले हो चुका था, और तब से वह अकेले ही सोनल का पालन-पोषण कर रहा था। उसकी दुनिया उसकी बेटी में ही बसती थी। वह दिन-रात खेतों में मेहनत करता था ताकि सोनल को अच्छे से अच्छा जीवन दे सके।
सोनल पढ़ाई में होशियार थी और डॉक्टर बनने का सपना देखती थी। रघुवीर ने अपनी बेटी के सपनों को पूरा करने के लिए हर संभव कोशिश की। उसने अपने खेत गिरवी रख दिए और दूसरों से कर्ज लेकर उसकी पढ़ाई का खर्चा उठाया। वह भूखा सोता, फटे कपड़े पहनता, लेकिन उसने कभी सोनल को किसी चीज की कमी महसूस नहीं होने दी।
वक्त बीता, और सोनल डॉक्टर बन गई। उसकी नौकरी एक बड़े शहर में लग गई। रघुवीर के लिए यह सबसे बड़ा गर्व का पल था। लेकिन धीरे-धीरे सोनल शहर की चकाचौंध में खोने लगी। वह अपने पिता से फोन पर कम बात करती, गाँव आने का वादा करती लेकिन कभी लौटती नहीं।
एक दिन रघुवीर बहुत बीमार हो गया। उसने सोनल को कई बार फोन किया, लेकिन उसकी व्यस्तता ने उसे वापस आने की इजाज़त नहीं दी। रघुवीर ने आखिरी बार अपनी बेटी की आवाज़ सुनने की उम्मीद में फोन उठाया, लेकिन दूसरी तरफ से सिर्फ यह सुनाई दिया, “पापा, अभी मैं बहुत बिज़ी हूँ। बाद में बात करती हूँ।”
कुछ दिनों बाद
कुछ दिनों बाद, गाँव के एक पड़ोसी ने सोनल को उसके पिता की मौत की खबर दी। वह दौड़कर गाँव पहुंची, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। रघुवीर के खाली घर में सिर्फ उनकी पुरानी खाट, कुछ फटे हुए कपड़े, और एक अलमारी में सोनल के बचपन की तस्वीरें थीं।
सोनल को अहसास हुआ कि उसने अपने सपनों के पीछे दौड़ते हुए अपने पिता की कुर्बानियों को नजरअंदाज कर दिया। वह अपनी गलती पर पछताती रही, लेकिन अब वक्त लौटाया नहीं जा सकता था।
संदेश:
यह कहानी हमें सिखाती है कि माता-पिता हमारे लिए अपनी पूरी जिंदगी कुर्बान कर देते हैं। उनका प्रेम निस्वार्थ होता है, लेकिन हमारी व्यस्तता और लापरवाही उनके अकेलेपन का कारण बन जाती है। जीवन की दौड़ में कभी-कभी रुककर अपने माता-पिता के बारे में सोचना और उन्हें समय देना बेहद ज़रूरी है, क्योंकि उनका साथ हमेशा के लिए नहीं होता।